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रामचरित मानस


चौपाई :


* तेहिं मम पद सादर सिरु नावा। पुनि आपन संदेह सुनावा॥


सुनि ता करि बिनती मृदु बानी। प्रेम सहित मैं कहेउँ भवानी॥1॥



भावार्थ:-गरुड़ ने आदरपूर्वक मेरे चरणों में सिर नवाया और फिर मुझको अपना संदेह सुनाया। हे भवानी! उनकी विनती और कोमल वाणी सुनकर मैंने प्रेमसहित उनसे कहा-॥1॥



* मिलेहु गरुड़ मारग महँ मोही। कवन भाँति समुझावौं तोही॥


तबहिं होइ सब संसय भंगा। जब बहु काल करिअ सतसंगा॥2॥



भावार्थ:-हे गरुड़! तुम मुझे रास्ते में मिले हो। राह चलते मैं तुम्हे किस प्रकार समझाऊँ? सब संदेहों का तो तभी नाश हो जब दीर्घ काल तक सत्संग किया जाए॥2॥



* सुनिअ तहाँ हरिकथा सुहाई। नाना भाँति मुनिन्ह जो गाई॥


जेहि महुँ आदि मध्य अवसाना। प्रभु प्रतिपाद्य राम भगवाना॥3॥



भावार्थ:-और वहाँ (सत्संग में) सुंदर हरिकथा सुनी जाए जिसे मुनियों ने अनेकों प्रकार से गाया है और जिसके आदि, मध्य और अंत में भगवान्‌ श्री रामचंद्रजी ही प्रतिपाद्य प्रभु हैं॥3॥



* नित हरि कथा होत जहँ भाई। पठवउँ तहाँ सुनहु तुम्ह जाई॥


जाइहि सुनत सकल संदेहा। राम चरन होइहि अति नेहा॥4॥



भावार्थ:-हे भाई! जहाँ प्रतिदिन हरिकथा होती है, तुमको मैं वहीं भेजता हूँ, तुम जाकर उसे सुनो। उसे सुनते ही तुम्हारा सब संदेह दूर हो जाएगा और तुम्हें श्री रामजी के चरणों में अत्यंत प्रेम होगा॥4॥



दोहा :


* बिनु सतसंग न हरि कथा तेहि बिनु मोह न भाग।


मोह गएँ बिनु राम पद होइ न दृढ़ अनुराग॥61॥






भावार्थ:-सत्संग के बिना हरि की कथा सुनने को नहीं मिलती, उसके बिना मोह नहीं भागता और मोह के गए बिना श्री रामचंद्रजी के चरणों में दृढ़ (अचल) प्रेम नहीं होता॥61॥



चौपाई :


* मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा। किएँ जोग तप ग्यान बिरागा॥


उत्तर दिसि सुंदर गिरि नीला। तहँ रह काकभुसुण्डि सुसीला॥1॥



भावार्थ:-बिना प्रेम के केवल योग, तप, ज्ञान और वैराग्यादि के करने से श्री रघुनाथजी नहीं मिलते। (अतएव तुम सत्संग के लिए वहाँ जाओ जहाँ) उत्तर दिशा में एक सुंदर नील पर्वत है। वहाँ परम सुशील काकभुशुण्डिजी रहते हैं॥1॥



*राम भगति पथ परम प्रबीना। ग्यानी गुन गृह बहु कालीना॥


राम कथा सो कहइ निरंतर। सादर सुनहिं बिबिध बिहंगबर॥2॥



भावार्थ:-वे रामभक्ति के मार्ग में परम प्रवीण हैं, ज्ञानी हैं, गुणों के धाम हैं और बहुत काल के हैं। वे निरंतर श्री रामचंद्रजी की कथा कहते रहते हैं, जिसे भाँति-भाँति के श्रेष्ठ पक्षी आदर सहित सुनते हैं॥2॥



* जाइ सुनहु तहँ हरि गुन भूरी। होइहि मोह जनित दुख दूरी॥


मैं जब तेहि सब कहा बुझाई। चलेउ हरषि मम पद सिरु नाई॥3॥



भावार्थ:-वहाँ जाकर श्री हरि के गुण समूहों को सुनो। उनके सुनने से मोह से उत्पन्न तुम्हारा दुःख दूर हो जाएगा। मैंने उसे जब सब समझाकर कहा, तब वह मेरे चरणों में सिर नवाकर हर्षित होकर चला गया॥3॥



* ताते उमा न मैं समुझावा। रघुपति कृपाँ मरमु मैं पावा॥


होइहि कीन्ह कबहुँ अभिमाना। सो खोवै चह कृपानिधाना॥4॥



भावार्थ:-हे उमा! मैंने उसको इसीलिए नहीं समझाया कि मैं श्री रघुनाथजी की कृपा से उसका मर्म (भेद) पा गया था। उसने कभी अभिमान किया होगा, जिसको कृपानिधान श्री रामजी नष्ट करना चाहते हैं॥4॥



* कछु तेहि ते पुनि मैं नहिं राखा। समुझइ खग खगही कै भाषा॥


प्रभु माया बलवंत भवानी। जाहि न मोह कवन अस ग्यानी॥5॥



भावार्थ:-फिर कुछ इस कारण भी मैंने उसको अपने पास नहीं रखा कि पक्षी पक्षी की ही बोली समझते हैं। हे भवानी! प्रभु की माया (बड़ी ही) बलवती है, ऐसा कौन ज्ञानी है, जिसे वह न मोह ले?॥5॥



दोहा :


* ग्यानी भगत सिरोमनि त्रिभुवनपति कर जान।


ताहि मोह माया नर पावँर करहिं गुमान॥62 क॥



भावार्थ:-जो ज्ञानियों में और भक्तों में शिरोमणि हैं एवं त्रिभुवनपति भगवान्‌ के वाहन हैं, उन गरुड़ को भी माया ने मोह लिया। फिर भी नीच मनुष्य मूर्खतावश घमंड किया करते हैं॥62 (क)॥



* सिव बिरंचि कहुँ मोहइ को है बपुरा आन।


अस जियँ जानि भजहिं मुनि माया पति भगवान॥62 ख॥



भावार्थ:-यह माया जब शिवजी और ब्रह्माजी को भी मोह लेती है, तब दूसरा बेचारा क्या चीज है? जी में ऐसा जानकर ही मुनि लोग उस माया के स्वामी भगवान्‌ का भजन करते हैं॥62 (ख)॥




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